बहुत साल पहले की बात है, यूरोप के एक समृद्ध लेकिन दुखी देश फ्रांस में एक राजा रहता था — लुई सोलहवां। उसकी उम्र ज़्यादा नहीं थी, लेकिन उसके सिर पर एक ऐसा ताज था, जो पूरे फ्रांस की तक़दीर तय करता था। लोग उसके आगे झुकते थे, लेकिन दिलों में चुपचाप सवाल उठते थे – “क्या यही इंसाफ है?”

लुई कोई युद्धप्रिय राजा नहीं था, पर एक समय अमेरिका में आज़ादी की लड़ाई छिड़ी। अमेरिका के 13 उपनिवेश ब्रिटिश हुकूमत से आज़ादी चाहते थे, और फ्रांस ने उनका साथ दिया। लुई ने बड़े गर्व से पैसे, हथियार, सैनिक सब भेजे। उसने सोचा – अगर ब्रिटेन को हार मिलेगी, तो फ्रांस की जीत होगी। और जीत तो मिली… अमेरिका आज़ाद हो गया। लेकिन साथ ही फ्रांस की तिजोरी खाली हो गई।
राजा ने युद्ध में इतना खर्च कर डाला कि पूरा देश कर्ज़ में डूब गया। और इस कर्ज़ का बोझ राजा ने खुद नहीं उठाया — उसने फैसला लिया कि टैक्स बढ़ा दिया जाए। पर टैक्स किस पर? वही तीसरे एस्टेट के लोग — गरीब किसान, मजदूर, कारीगर — जिनके पास पहले से ही कुछ नहीं था।
राजा के महल वर्साय की दीवारें सोने जैसी चमकती थीं। झूमर लटकते थे, हजारों नौकर चाकरी करते थे, और रानी मैरी एंटोनेट हर पार्टी में हजारों फ़्रैंक की पोशाक पहनती थी। जब देश के लोग भूख से तड़प रहे थे, तब वर्साय में महफिलें सज रही थीं।
राजा ने टैक्स वसूलने के लिए दबाव बनाया। लेकिन अब लोग जाग चुके थे। रूसो, मोंटेस्क्यू और लॉक जैसे विचारकों की बातें अब हर फ्रांसीसी के मन में गूंजने लगी थीं — “सत्ता जनता के हाथ में होनी चाहिए”, “हर व्यक्ति समान है”, और “राजा का अधिकार ईश्वर नहीं, संविधान से आना चाहिए।”
1789 में राजा ने टैक्स बढ़ाने के लिए ‘स्टेट्स जनरल’ की बैठक बुलाई। तीनों एस्टेट्स को बुलाया गया, लेकिन फिर वही भेदभाव। तीसरे एस्टेट को बराबरी का हक़ नहीं मिला। वे भड़क उठे। गुस्से में उन्होंने बैठक से बाहर निकलकर खुद को “नेशनल असेंबली” घोषित कर दिया और टेनिस कोर्ट में जाकर कसम खाई — जब तक फ्रांस को नया संविधान नहीं मिलेगा, वे पीछे नहीं हटेंगे।
अब सड़कों पर क्रांति की आग फैल चुकी थी। लोगों ने 14 जुलाई 1789 को ‘बास्तील’ नाम की कुख्यात जेल पर हमला कर दिया। बास्तील उस शासन का प्रतीक थी जिसमें राजा सब कुछ था और जनता कुछ नहीं। भीड़ ने जेल को ढहा दिया, कैदियों को छुड़ाया और यह दिन फ्रांसीसी क्रांति का जन्मदिन बन गया।
राजा लुई सोलहवां को जनता ने उस दिन माफ़ नहीं किया जब उन्होंने देखा कि भूख से बिलखती भीड़ के लिए उनके पास कोई उत्तर नहीं है, पर खुद के लिए उन्होंने महल में दावतें सजाई थीं। और जब उन्होंने देश से भागने की कोशिश की — तभी जनता को यकीन हो गया कि राजा अब देशद्रोही है।
एक रात लुई और मैरी एंटोनेट चुपचाप महल से बाहर निकले। वे साधारण कपड़ों में थे, उनकी बग्घी एक सामान्य सी दिखने वाली थी, और उनके चेहरे पर घबराहट साफ झलक रही थी। पर रास्ते में, एक जगह एक पोस्टमास्टर ने उन्हें पहचान लिया। कहा जाता है कि उसने राजा का चेहरा पुराने सिक्कों पर देख रखा था। बस… खबर आग की तरह फैल गई। राजा और रानी को पकड़ लिया गया और पेरिस लाया गया। अब वे कैदी थे — वही राजा और रानी जिनके सामने कभी लोग सिर झुकाकर चलते थे, अब बंद गाड़ी में भीड़ के बीच घिरे हुए थे।
फ्रांस की नवनिर्मित असेंबली में बहसें चलीं — क्या राजा को सिर्फ पद से हटाना काफी है या उसे देशद्रोही मानकर सज़ा दी जानी चाहिए?
बहुमत ने कहा — “अगर एक साधारण आदमी देश से गद्दारी करे तो उसे मौत मिलती है, तो राजा क्यों बच जाए?”
21 जनवरी 1793 की सुबह… ठंडी हवा में कुछ असामान्य हलचल थी। हजारों लोग सड़कों पर जमा थे। हर कोई खामोश था, पर उनकी आंखों में एक बात साफ थी — आज फैसला होगा।
राजा को जेल से निकाला गया। सफेद कपड़े पहने, चेहरा शांत था, लेकिन आंखों में पश्चाताप की लहर थी। उसने आखिरी बार लोगों की ओर देखा और कहा —
“मैं निर्दोष हूँ… मैं फ्रांस का भला चाहता था।”
पर किसी ने कुछ नहीं सुना।
उसे एक ऊँचे मंच पर ले जाया गया, जहां एक गिलोटीन तैयार था — वही लोहे की मशीन जो एक झटके में सिर अलग कर देती थी। भीड़ सांस रोककर देख रही थी।
कुछ ही सेकंड लगे। मशीन गिरी… और राजा लुई सोलहवां का सिर नीचे गिर गया।
कोई ताली नहीं बजी, कोई शोर नहीं हुआ — बस एक गहरी चुप्पी थी, जिसमें एक पूरा युग खत्म हो गया था।
अब बारी थी उसकी पत्नी की — मैरी एंटोनेट की।
रानी को पुरुषों के कपड़े पहना दिए गए, बाल काट दिए गए — ताकि गिलोटीन में फंसे नहीं। उसे उसी रास्ते से ले जाया गया जिससे कभी वह रथों में बैठकर हज़ारों लोगों का अभिवादन लिया करती थी।
अब वही लोग थे, पर कोई सलाम नहीं कर रहा था — बस घूर रहे थे।
16 अक्टूबर 1793 —
मैरी एंटोनेट की भी वही सजा हुई।
एक रानी, जिसकी मुस्कान पर देश थिरकता था, वो अब अकेली, असहाय, और पूरी तरह टूटी हुई थी।
उसने कहा —
“मैंने देश को कभी नुकसान नहीं पहुंचाना चाहा… लेकिन शायद मैं समझ न सकी कि मेरे लोगों की पीड़ा कितनी गहरी है।”
गिलोटीन फिर चला।
और उस दिन सिर्फ एक सिर नहीं गिरा, बल्कि एक पूरा साम्राज्य ज़मीन पर आ गिरा।
राजा के बाद देश की बागडोर एक नेता रॉब्सपियर ने संभाली। उसने कहा, “क्रांति को सुरक्षित रखने के लिए ज़रूरी है कि दुश्मनों को मिटा दिया जाए।” और फिर शुरू हुआ – आतंक का शासन। जो भी सरकार के खिलाफ बोला, गिलोटीन पर चढ़ा दिया गया। हजारों लोगों की गर्दनें कट गईं। जनता जो आज़ादी चाहती थी, वह डर में बदल गई।
आखिरकार लोगों ने रॉब्सपियर को भी खत्म कर दिया। अब पांच लोगों की एक समिति बनी – डायरेक्ट्री – लेकिन वे आपस में ही उलझते रहे। फ्रांस को एक मज़बूत नेतृत्व की ज़रूरत थी। और ऐसे ही समय एक नौजवान सैनिक की आवाज़ उभरी — नेपोलियन बोनापार्ट।
नेपोलियन एक सामान्य परिवार से था। वह सेना में भर्ती हुआ, और अपनी बहादुरी से धीरे-धीरे आगे बढ़ा। उसकी चालाकी, समझदारी और जोश ने लोगों का दिल जीत लिया। 1799 में उसने सत्ता अपने हाथ में ले ली। उसने खुद को “प्रथम कौंसल” घोषित किया और बाद में “सम्राट” बन बैठा।
लेकिन नेपोलियन वैसा राजा नहीं था जैसा लुई था। उसने बहुत सारे सुधार किए — स्कूलों की व्यवस्था सुधारी, नए कानून बनाए, टैक्स व्यवस्था को सरल बनाया, और “नेपोलियन संहिता” (Napoleonic Code) बनाई जिसे बाद में कई देशों ने अपनाया। उसने यूरोप के कई देशों पर चढ़ाई कर दी और फ्रांस को महाशक्ति बना दिया।
पर सत्ता का नशा बड़ा ख़तरनाक होता है। नेपोलियन ने रूस पर हमला कर दिया — और यही उसकी सबसे बड़ी भूल बन गई। हज़ारों सैनिक बर्फ में मर गए, सेना बिखर गई। दुश्मन देशों ने उसका साथ छोड़ दिया और उसे कैद कर लिया गया।
कुछ समय बाद नेपोलियन फिर से लौटा, और एक बार फिर सत्ता में आया — लेकिन ज्यादा दिन नहीं टिक पाया। वाटरलू की लड़ाई में उसकी अंतिम हार हुई और उसे फिर से एक टापू पर निर्वासित कर दिया गया। वहीं, अकेलेपन में, वह मर गया।
नेपोलियन चला गया, राजा भी चला गया, लेकिन जो विचार क्रांति के दौरान पैदा हुए थे — आज़ादी, समानता और भाईचारा — वे अब फ्रांस के हर दिल में बस चुके थे। और यही विचार पूरे यूरोप में फैल गए।
एक गरीब, भूखे, टूटा हुआ देश, जिसने कभी अपने राजा के सामने सिर झुकाया था — उसी देश ने यह साबित कर दिया कि अगर जनता जाग जाए, तो कोई ताज हमेशा नहीं टिकता।
और इस तरह खत्म हुई एक ऐसी कहानी, जो सिर्फ फ्रांस की नहीं थी — वो हर उस इंसान की थी जो कभी चुप था, लेकिन फिर बोल उठा – “अब और नहीं।”
आपने क्या सीखा ?
- लुई सोलहवें द्वारा अमेरिका की स्वतंत्रता में मदद और उसपर खर्च
- देश पर कर्ज़
- टैक्स बढ़ाना और राजा के शाही खर्च
- बास्तील पर हमला
- संविधान और अधिकारों की घोषणा
- राजा-रानी की मृत्यु
- रॉब्सपियर और आतंक का शासन
- नेपोलियन का बचपन, उदय, सुधार, और पतन

“ताजों को गिराने का हौसला रखती है,
भूखे पेटों में भी चिंगारी जलती है।
जिनके पास कुछ नहीं, वही सबसे बड़ा सवाल होते हैं,
संघर्ष जब बोलता है, तो सिंहासन डोलते हैं।”
– Vikash Kumar Hansda
Vikash Kumar Hansda
- सरल वर्तमान काल (Simple Present Tense)
- 🧑🏫 Topic: Determiners
- ✨ The Rise of Nationalism in Europe – एक कहानी राष्ट्रवाद की… (Part 2)
- “French Revolution” – इतिहास की सबसे डरावनी क्रांति
- आखिरी पन्ना
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Exactly !!!!
The French Revolution proves how strong ordinary people can be when they stand together for their rights…No throne or crown…
Hm..😐
that’s the situation of students nowadays. Didn’t you heard the news that a girl died after her father beaten her…
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