इस धरती पर हम और आप अब तक कैसे जिन्दा है कभी सोचा है? नहीं, तो फिर अब सोचिए और सोच की गहराई तक जायेगा। आपको मिलेगा की ये दुनियाँ अगर आज तक जो भी थोड़ा बहुत चल रहा है तो वो सिर्फ एक प्रेम के वजह से। हमें अपनों से प्रेम है, अपने आप से कही ज्यादा प्रेम है और ऐसी प्रेम भाव के वजह हम अपने अपने को बुरी युक्ति पर पड़ने नहीं देते। अगर प्रेम ना होता आज भारत जनसंख्या दुनियाँ में पहला स्थान ना हासिल होता। प्राचीन काल के जैसा राजाओं के बीच की दुश्मनी के वजह जो युद्ध होते थे कितने ही जानें चली जाती थी। ऐसे ही आज भी होते तो शायद इंसान का नामो निशान ना बचता।
तो फिर आज अगर आप जिन्दा है तो फिर इस शक्तिशाली हत्यार – प्रेम को जानने की कोशिश करते है।
क्या आपने कभी सोचा है कि प्रेम की असली शुरुआत कहाँ से होती है? बाइबिल के 1 यहुन्ना 4:19 में लिखा है – “हम इसलिए प्रेम करते हैं क्योंकि उसने हमसे प्रेम किया।” यह वचन हमारे दिलों को छूता है। परमेश्वर ने सबसे पहले हमसे प्रेम किया और अब वह चाहता है कि हम भी उस प्रेम को आगे बढ़ाएँ।
कल्पना कीजिए, यदि कोई बच्चा अपने माता-पिता से “मैं तुमसे प्रेम करता हूँ” कहता है, वो ये इसलिए नहीं प्रकट करता है की वो उनसे प्रेम करता है लेकिन यह भावना उसमें पहले से भरी होती है क्योंकि उसके माता-पिता ने उसे पहले प्रेम किया। यही हमारे और परमेश्वर के संबंध में भी होता है।
यीशु की सबसे बड़ी आज्ञा – परमेश्वर से प्रेम
अब, एक पल के लिए सोचिए – आप किससे सबसे अधिक प्रेम करते हैं? परिवार? दोस्त? शायद आपका जवाब दोनों हो सकता है लेकिन ज्यादा झुकाव परिवार के तरफ होगा, मतलब ज्यादा प्रेम आपको अपने परिवार से है।
शायद यह सुनकर थोड़ा अजीब लगे, खासकर जब मत्ती 10:37 में यीशु कहते हैं – “जो अपने माता-पिता को मुझसे अधिक प्रिय जानें, वह मेरे योग्य नहीं है।”
अगर इस वचन को पढ़ कर सीधा निष्कर्ष निकाला जाए तो हमें लगेगा की बाइबिल हमें अपने माता -पिता से प्रेम ना करने को कह रहे है। क्या इसका मतलब यही है कि हमें अपने माता-पिता से प्रेम नहीं करना चाहिए? बिल्कुल नहीं। इसका अर्थ यह है कि परमेश्वर का स्थान हमारे जीवन में सर्वोच्च होना चाहिए। जब हम परमेश्वर से सच्चा प्रेम करते हैं, तभी हम अपने परिवार और मित्रों से भी सही तरीके से प्रेम कर सकते हैं।
इसका ये मतलब बिलकुल भी नहीं है की आप कहे, प्रभु मै आपसे प्रेम करता हूँ। और अपने परिवार को आप यूँ ही छोड़ दें – क्योंकि वचन आपसे और आपके समझ से यही तो कहता है। नहीं, ऐसा नहीं है, कृपया वचन की गहराई को समझे, उनकी शब्दों पर अपना तर्क ना पेश करें।
इस वचन का मूल अर्थ यह नहीं है कि हमें अपने माता-पिता या परिवार से प्रेम नहीं करना चाहिए बल्कि बाइबिल बार-बार हमें माता-पिता का सम्मान करने और उनसे प्रेम करने की शिक्षा देती है (निर्गमन 20:12)। लेकिन मत्ती 10:37 में यीशु का संदेश कुछ और गहरा है।
इसका सही अर्थ क्या है?
यह वचन प्राथमिकता के बारे में है की अपने जीवन में पहला स्थान किसे देते है? यीशु यहाँ यह सिखा रहे हैं कि परमेश्वर हमारे जीवन में सर्वोच्च स्थान पर होना चाहिए। यदि कभी ऐसा समय आए जब हमें परमेश्वर और परिवार के बीच चुनाव करना पड़े, तो हमें परमेश्वर को प्राथमिकता देनी चाहिए।
कल्पना कीजिए कि कोई व्यक्ति यीशु मसीह में विश्वास करता है, लेकिन उसका परिवार उसे मना करता है। उस स्थिति में, व्यक्ति को अपने विश्वास पर टिके रहना चाहिए, भले ही परिवार नाराज हो जाए। यह कठिन हो सकता है, लेकिन यीशु ने हमें सिखाया कि उसे अपने जीवन का केंद्र बनाना चाहिए।
या फिर आज रविवार है और आपको चर्च जाना है लेकिन परिवार या परिवार की जिम्मेदारी आपके आड़े आती है, ऐसे में आप सब कुछ छोड़ प्रभु यीशु को अपना समय दें। रविवार का दिन आपका नहीं है – प्रभु का है, उनके हिस्से की समय किसी ओर को ना दें। अपने जीवन में प्राथमिकता अपने श्रीजनहार को ही दें।
बाइबिल प्रेम के बारे क्या कहती है?
बाइबिल के अनुसार, प्रेम ईश्वर का स्वरूप है। 1 यहुन्ना 4:8 में लिखा है, “परमेश्वर प्रेम है।” बाइबिल में प्रेम केवल एक भावना नहीं बल्कि एक क्रिया है, जो निःस्वार्थता, धैर्य, करुणा और क्षमा से भरा होता है। 1 कुरिन्थियों 13:4-7 में प्रेम को इस प्रकार वर्णित किया गया है – “प्रेम धैर्यशील है, प्रेम कृपालु है, यह न ईर्ष्या करता है, न घमंड करता है, न अभिमान करता है… यह सब कुछ सह लेता है, सब कुछ विश्वास करता है, सब कुछ आशा करता है, और सब कुछ सहन करता है।” यीशु ने भी प्रेम को सर्वोच्च आज्ञा बताया – “अपने परमेश्वर से अपने सारे मन, प्राण और बल से प्रेम करो और अपने पड़ोसी से अपने समान प्रेम करो।” (मत्ती 22:37-39)। बाइबिल में प्रेम निःस्वार्थ सेवा और आज्ञा पालन का प्रतीक है। अब ये देखे की क्या हम में इनमें से एक भी भाव है या नहीं। अगर नहीं, तो फिर हमें खुद में प्रेम की भाव को रोपने की जरुरत है।
क्योंकि यीशु ने हमसे असीमित प्रेम किया है इसलिए हमें भी उनसे प्रेम रखना है। सिर्फ बोलने के लिए नहीं की प्रभु मै आपसे प्रेम करता हूँ परंतु अपने अंतर्मन से और अपने चाल चलन में उनकी छवि दिखनी चाहिए और ये तब ही होगा जब हम उनके आज्ञा को मानेगे।
परमेश्वर से सच्चा प्रेम कैसे करें?
आपके मन में यह सवाल जरूर आया होगा – “क्या सिर्फ यह कह देना कि मैं परमेश्वर से प्रेम करता हूँ, काफी है?” यीशु इसका उत्तर यहुन्ना 14:15 में देते हैं “यदि तुम मुझसे प्रेम करते हो तो मेरी आज्ञाओं को मानोगे।”
अब अगर आप कहोगे की मै प्रभु से प्रेम करता हूँ ये माननीय नहीं होगा, क्योंकि प्रेम शब्दों में नहीं बल्कि हमारे कार्यों में झलकना चाहिए। तो हम अपने कार्य में प्रेम को कैसे लाएं? ये हम कर सकते प्रभु की दी हुई आज्ञा का पालन कर के, जब हम उसकी आज्ञाओं का पालन करते हैं, जब हम सच्चाई और करुणा से जीते हैं, तब हमारा प्रेम असली माना जाता है।
प्रभु की आज्ञा क्या है?
दूसरों से प्रेम – आसान या मुश्किल?
प्रभु यीशु का आज्ञा को हम (मत्ती 5:43-44) में देख सकते है “अपने पड़ोसी से अपने समान प्रेम करो।” – यह सुनने में आसान लगता है, लेकिन व्यवहार में लाना कितना कठिन है ना? अब आप सोच के देखे की क्या कभी किसी का पडोसी किसी के साथ भी प्रेम भाव में रहता है? नहीं! हर किसी का अपने पडोसी से 36 का अकड़ा रहता है। प्रभु यीशु उनसे ही प्रेम करने की आज्ञा दें रहे है। सोचिए, आपको प्रभु से प्रेम है ये कहने भर से नहीं होगा आपको कर के दिखाना होगा और क्या करना होगा, प्रेम! वो भी पडोसी से प्रेम करना है – इतना ही नहीं, ये भी की उनसे प्रेम आपको जिस प्रकार अपने आप से करते है वही प्रेम रखना है। अब सोचिए आप अपने से कैसे प्रेम करते है? अगर छोटा सा सुई भी आपको जुभ जाये तो अंशु छलक जाते है और अपने को बेहतर महसूस कराने के लिए कुछ भी कर सकते है। कुछ इसी प्रकार का प्रेम अपने पडोसी से करना होगा तब कही जा कर आप खुद को प्रभु यीशु के प्रेम के करीब पायेंगे।
और फिर यीशु ने तो यह भी कहा – “अपने बैरी से भी प्रेम करो।” कल्पना कीजिए, उस इंसान से प्रेम करना जिसने आपको चोट पहुँचाई हो! यह कितना कठिन है। लेकिन यही तो यीशु की शिक्षा का सार है – क्षमा और प्रेम। ये हमारे सोच से परे है की जिसने हमारा नुकसान कराया, जिसने हमें आघात पहुँचाया, उसे प्रेम करना है। ऊफ!!!! कितना कठिन है, है ना! ये आपको लगता है इसलिए कठिन है। प्रभु ने हमें क्षमा करना भी सिखाया है। अगर अपने दुश्मन को क्षमा करते है तो फिर उनसे प्रेम करना उतना भी मुश्किल नहीं है। वैसे भी हम और आप कौन होते है किसी से दुश्मनी करना या अपने दुश्मनो को ना क्षमा करना। याद कीजिए वो मंजर और वो वेदना जो प्रभु यीशु को हमारे गुनाह के लिए सहना पड़ा था, फिर भी उसने परमेश्वर से ये प्रार्थना की उन्हें क्षमा कर दें। अब सोच कर देखिए – इस पृथ्वी के श्रीजानहार और जो कुछ इसमें है सब उन्हीं का तो था, चाहते तो एक पल मिटा देते, लेकिन उसने हमें क्षमा करना सिखाया है।ठीक उसी तरह हम भी अपने दुश्मनो को माफ़ कर उनसे प्रेम रख सकते है।
हमारे जीवन में ये बैरी कौन हैं? कभी-कभी हमारे अपने – पति-पत्नी, भाई-बहन, पड़ोसी – जिनसे हमारे झगड़े होते हैं। यीशु हमें सिखाते हैं कि इन रिश्तों में भी प्रेम और क्षमा का भाव रखना जरूरी है।
प्रेम न रखने का परिणाम
क्या आपने कभी सोचा है कि घृणा हमारे भीतर क्या असर डालती है? पहला यहुन्ना 3:14 में लिखा है – “अगर हम प्रेम करते हैं तो मृत्यु को पार कर सकते हैं, लेकिन जो प्रेम नहीं करता वह मृत्यु की दशा में है।”
अगर हमारे दिल में घृणा है – अपने परिवार, कलीसिया या समाज के लोगों के लिए – तो हम आत्मिक रूप से मृत हैं। बाइबिल तो यहाँ तक कहती है – “जो कोई अपने भाई से प्रेम नहीं रखता, वह हत्यारा है।”
याद कीजिए आदम और हवा को – एक छोटी सी आज्ञा उल्लंघन ने उन्हें परमेश्वर से दूर कर दिया था। हमारी छोटी-छोटी गलतियाँ भी हमें परमेश्वर से दूर कर सकती हैं। इसलिए जहाँ तक हो सके प्रभु का आज्ञा मानते हुए उनसे प्रेम रखे। क्या होगा अगर हम उनसे प्रेम रखते है?
कभी महसूस किया है, जब आप किसी से गहरे प्रेम करते हैं तो आपके भीतर कितनी ऊर्जा और सकारात्मकता होती है? आप तारोंताज़ा महसूस करते है और आपके चेहरे पर एक अलग सा नूर झलकता है। हमेशा मन आपका ख़ुशी से डोलता रहता है।
NO LOVE!!! NO POWER!!!!!
MORE LOVE!!!! MORE POWER!!!!
जितना अधिक हम प्रेम में चलते हैं, उतनी ही अधिक आत्मिक शक्ति और शांति हमें मिलती है। परमेश्वर से और दूसरों से प्रेम करके हम न केवल आत्मिक रूप से मजबूत बनते हैं, बल्कि एक बेहतर समाज भी बना सकते हैं।
निष्कर्ष – प्रेम ही मार्ग है
आखिरकार, सब कुछ प्रेम पर ही टिकता है। प्रेम ही वह सेतु है जो हमें परमेश्वर और एक-दूसरे से जोड़ता है। जब हम यीशु की आज्ञाओं का पालन करते हुए प्रेम में चलते हैं, तभी हम सच्चे मसीही कहलाते हैं।
हमें अपने हृदय से बैर, घृणा और क्रोध को निकाल कर प्रेम और क्षमा को अपनाना चाहिए। जैसा 1 यहुन्ना 4:16 में लिखा है – “परमेश्वर प्रेम है और जो प्रेम में बना रहता है, वह परमेश्वर में बना रहता है।” 🙏
तो चलिए, आज से ही प्रेम को अपने जीवन का मार्गदर्शन बनाते हैं। ❤

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